बुधवार, 29 जनवरी 2014

माँ का ज़ेहाद


माँ का ज़ेहाद 

शायद दिल्ली के राजपथ पर गणतंत्रता दिवस पर होने वाले परेड की तैयारी भी उतनी जोर -शोर से नहीं चल रही होगी जीतनी तैयारी रेहाना बीबी गणतंत्रता दिवस के एक दिन पहले अपने घर पर कर रही थी / उनका एकमात्र बेटा अब्दुल्ला, दो वर्षों के पश्चात सऊदी अरब से कमा कर घर लौट रहा था / चौबीस जनवरी को ही वह मुम्बई एअरपोर्ट पर उतर चुका था / आज दोपहर तक वह आजमगढ़ स्थित अपने पैतृक गाँव पहुँचाने वाला था / माँ के ख़ुशी का ठिकाना ना था / ऐसे भी अब्दुल्ला के पिता के असमय मृत्यु के पश्चात रेहाना बीबी सदैव दुखी रहा करती थी / कइयों ने तो उसे दूसरी शादी करने की सलाह दी / लेकिन पुत्र के भविष्य की चिंता कर उसने इससे इंकार कर दिया था / दूसरों के खेत में मजदूरी करती और सिलाई -कढ़ाई कर अपना और अपने बेटे का पेट पालती/ अब्दुल्ला पढने -लिखने में बहुत होनहार था / पडोशी भी उसे बहुत पसंद करते थे / पड़ोसियों के सहयोग से उसने मैट्रिक तक की पढाई की / फिर लोगो की सलाह पर तकनीकी स्कुल से आईटीआई का कोर्स किया / एक दिन माँ ने अपने कलेजे के टुकड़े को दिल पर पत्थर रख कर उसके मामा के साथ सऊदी अरब में कमाने के लिए भेज दिया / आज वहाँ जाने के बाद वह पहली बार घर लौट रहा था / माँ उसके स्वागत में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती थी / उसके कमरे को अच्छी तरह सजाया / बिछावन के चददर, खिड़की -दरवाजे की परदे सभी बदल डाले थे /उसके लिए अपने हाथों से दो जोड़ी कुरता और पतलून बनाये थे / एक जोड़ी स्वेटर, एक मफ़लर और उन का ही हैण्ड ग्लव्स बनाकर पहले से ही रख लिए थे /सुबह से ही वह उसके पसंद कि

रविवार, 26 जनवरी 2014

बलात्कार पीड़िता



बलात्कार पीड़िता


हाड़ है मांस है /
लेती अब भी साँस है /
सोती है, जागती है /
भोजन भी करती है /
फिर भी अब जीने की -
नहीं उसमे आस है /
बर्बर समाज की बनाई -
ज़िंदा एक लाश है /
ना रोती ना हंसती है /
मिलने से डरती है /
गूंगी ना बहरी फिर भी -
ना बोलती ना सुनती है /
गांव है, उसका घर है /
लोग है बाग़ है /
नीम का भी छांव है /
कमरे का अन्धेरा कोना /
टीस रहा घाव है /
बापू है, अम्मा है /
मीडिया का मजमा है /
पुलिस -प्रसाशन का-
चल रहा जांच है /
डॉक्टरी रिपोर्ट बतलाये -
आरोप बिलकुल सांच है /
फिर भी जीने से उसको -
साफ इनकार है /
जल्द आ जाये ऐसी-
मौत का इन्तजार है /

मंगलवार, 14 जनवरी 2014

वेश्या


 वेश्या




वो हर शाम दिख जाती /
उस खंडहर सा इमारत के नीचे /
जिसकी सफेदी,
दिवाल के पपड़ियों के साथ-
उजड़ गई थी वर्षों पहले /
लेकिन उसकी कोमल चमड़ियों को-
सभ्य समाज नोच-नीच कर भी -
नहीं उजाड़ पाया था अब तक /
टूटी खिड़किया, अधखुले दरवाजे/
दीवालों पर लटकी लताए /

शनिवार, 11 जनवरी 2014

दादाजी


दादाजी नब्बे वर्ष के हो गये है लेकिन आज भी उतने ही सक्रीय रहते है जितना वे अपने पचास- पचपन के उम्र में रहा करते थे / हालांकि अब उन्हें चलने -फिरने में तकलीफ होती है और बोलते समय भी जबान लड़खड़ाती है / दांत तो रहे नहीं लेकिन चश्मे कि जरुरत नहीं पड़ती / आजतक कभी घडी नहीं पहनी लेकिन कभी भी समय पूछो,  सठिक समय बतलाते है / कहते है कि मनुष्य यदि अपनी  सांसों की गति को पहचान ले तो वह बिना घडी के ही सठिक समय बतला सकता है / जब भी उन्हें समय जानने कि जरुरत पड़ती है अपनी उंगली  को नाक  के पास  ले जाते  है, सांसों की गति देखते है  और एकदम सही समय बतला देते है / गांव में द्वार पर आराम- कुर्सी  लगाकर बैठ जाते है और अपने हमउम्र साथीयों के साथ अखबार पढ़ना और आज-कल के आधुनिक समाजव्यवस्था की खामियां गिनाना ही उनके आलोचना का मुख्य विषय-वस्तु रहता है /