मंगलवार, 30 दिसंबर 2014




ना सूरज बदलता है /
ना चाँद बदल पाता है /
धरती का एक -एक कोना -
पहले सा ही रह जाता है /
सिंह दहाड़ता है/
बकरी मिमियाती है /
हर साँझ के बाद -
आदमी रात को ही पाता है /
दिसंबर का आखिरी दिन -
जैस हि गुजर जाता है /
नए साल की नई सुबह-
सिर्फ कैलेण्डर का पन्ना बदल जाता है /
लेकिन-
मानव चाहे तो -
क्या नहीं कर पायेगा /
ठान ले करने को कुछ तो-
आसमाँ को भी झुकाएगा /
चलो इस नए साल में -
कुछ नया करने की जिद कर डाले /
मरकर स्वर्ग पाने की -
चाहत बदल डाले -
नई सोच, नई ऊर्जा, दृढ विश्वास -
स्वर्ग को हीं धरती पर -
उतरने को मजबूर कर डाले /



अंग्रेजी नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाये /

गुरुवार, 11 दिसंबर 2014

इनकार (लघु कथा)

इनकार (लघु कथा)

“सुरेश जी आप तो कल अपनी बेटी के लिए लड़का देखने गए थे ना ?”
“हाँ , गया था /”
“कैसा है लड़का ?”
“लड़का गोरा-चिट्टा, ६ फुट लम्बा, उभरा मस्तिस्क , मजबूत शरीर, किसी राजकुमार से कम नहीं लगता / मेरी बेटी की तुलना में तो बीस पड़ता है /”
“करता क्या है ?”
“केंद्रीय ऊर्जा आयोग में अधिकारी के पद पर है /”
“तब तो वेतन भी अच्छा -खाशा होगा / उपरवार भी कमा लेता होगा /”
“उपरवार का तो नहीं पता लेकिन वेतन अच्छा – खासा है /”
“परिवार कैसा है ?”
“घर में माँ -बाप और बेटा सिर्फ तीन लोग ही है / बाप राज्य सरकार में कर्मचारी थे / अब रिटायर्ड हो गए है / अच्छा -खासा पेंसन पाते है / माँ घर में ही रहती है / अपना एक बड़ा सा मकान भी है / निचे के कमरों को उनलोगों ने किराये पर दे रखा है /”
” मांग कितना का है /”
” कोई खास नहीं /’
“तब तो बड़ा अच्छा रिश्ता पाया है आपने / जल्द से सगाई कर दीजिये / शादी बाद में होती रहेगी /”
“मैं भी तो यही चाहता हूँ / लेकिन——”
“लेकिन क्या ?”
“मेरी बेटी ने ऐसे परिवार में शादी से इंकार कर दिया है /”
वो भला क्यों?
अकेला लड़का है वो भी अपने माँ -बाप के साथ रहता है / मेरी बेटी को भी अपने सास-ससुर के साथ रहना होगा / उनकी गुलामी करनी होगी / उनके पुराने संस्कार को मानने होंगे / और तुम तो जानते हो की मेरी बेटी किसी के अधीन नहीं रह सकती / संस्कार के नाम पर उसके पंखों को उड़ने से नहीं रोका जा सकता / इसलिए इंकार कर दिया है /

गुरुवार, 6 नवंबर 2014

हिस्सेदारी (एक लघुकथा )


मुकेश ने अपने तबादले का पत्र साहब के सामने रखा और दोनों हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगा/

“साहब , मुझे इस शहर से दूर तबादले का आदेश मिला है / ”

” हाँ, तो क्या हुआ ? तबादला तो होना ही था /” साहब ने उसके चेहरे को देखा /
” लेकिन इस तबादले से तो मै तबाह हो जाऊंगा /”
” कैसे”
“साहब / मेरी पत्नी इसी शहर में एक विद्यालय में शिक्षिका है / मेरा बच्चा यहीं पढ़ता है / हमलोग अपने पुस्तैनी मकान में साथ-साथ रहते है / यदि मेरा तबादला दूसरे शहर में हो जाता है तो वे लोग अकेले पड़ जायेंगे / यदि मैं उन्हें साथ रखना चाहू तो मेरी पत्नी को नौकरी छोड़नी होगी / मुझे दूसरे शहर में मकान किराये पर लेना होगा / काफी आर्थिक क्षती होगी / ” मुकेश ने हाथ जोड़े-जोड़े कह डाला /
साहब ने अपना सर ऊपर उठाया और कैलकुलेटर को हाथ में लिया /
“तुम्हारी पत्नी सैलरी कितना पाती है /”
” लगभग पच्चीस हजार प्रत्येक माह /”
” अर्थात यदि तुम्हारी पत्नी नौकरी छोड़ती है तो तुम्हे प्रत्येक महीना पच्चीस हजार का नुकसान /”
साहब ने कैलकुलेटर पर अपनी उंगलिया घुमाना शुरू किया / फिर पूछा -
” यदि दूसरे शहर में घर भाड़े पर लेना हो कितने खर्च आएंगे ?”
” साहब, करीब पांच हजार रुपये /”
” और कोई नुकसान ?” साहब ने जानना चाहा /
” यहाँ कुछ सब्जिया उगा लेता हूँ / वहाँ तो सब कुछ खरीदने होंगे / ”
साहब ने कैलकुलेटर से उंगलिया उठाते हुआ कहा ” इस तबादले से तुम्हे लगभग पैतीस से चालीस हजार रुपये प्रत्येक माह अर्थात चार लाख रुपये सालाना नुकसान होगा / सचमुच
ये एक बड़ी राशि है/ लेकिन यदि तबादला रुक गया तो तुम्हे सालाना चार लाख का फ़ायदा/”
फिर वे अपने चेयर पर फ़ैल कर अंगड़ाइयां लेते हुए धीमे से पूछे-
” लेकिन तुम्हारे सलाने चार लाख फायदे से मेरा क्या फायदा होगा ? मेरा ना तो कोई प्रमोशन होगा ना ही सैलरी में बढ़ोतरी /”
” साहब मैं और मेरा परिवार आपपर हमेशा अहसानमंद रहेगा /”
” अहसान से पेट भरता तो मै यहां नौकरी क्यों करता/”
” साहब कुछ तो कीजिये”
” तुम भी कुछ करो’
” क्या कर सकता हूँ?”
” तबादला रुकने से जो तुम्हे एक साल में फ़ायदा होगा वह तुम मुझे दे दो / मैं अभी-अभी तुम्हारा स्थानांतरण आदेश रद्द कर देता हूँ /”
मुकेश जो अब तक श्रद्धा से हाथ जोड़कर खड़ा था आश्चर्यचकित होकर साहब को घृणा की दृष्टि से देखा और मन ही मन सोचने लगा ये कैसी हिस्सेदारी?

बुधवार, 1 अक्तूबर 2014

सड़कें



सड़कें-
स्वयं कही नहीं जाती /
पड़ी रहती है हमेशा एक सा /
इस पर गुजरने वाले ही -
जाया करते है /
लेकिन पा जाती है श्रेय जाने का /
पूछते है लोग -
कहाँ तक जाती है ये सड़क ?
जबाब भी मिल जाता है /
संकरी, चौड़ी, कच्ची, पक्की /
कही गढ्ढों को खुद में समाये /
तो कही खुद गढ्ढों में खो जाये /
ढ़ोती है राहगीरों को-
हल्के और भारी वाहनों को /
कभी – कभी तो लगने लगता है /
मिट जाएगी /
लेकिन फिर आगे बढ़ने पर /
मिलने लगते है संकेत /
उसके जिन्दा रहने के /
अच्छी सडकों को प्रशंसा के शब्द -
सुनने मिले या नहीं /
ख़राब सड़के गालियां जरूर खाती है /
फिर भी, अपना कर्तब्य निबाहने और -
अस्तित्व बचाये रखने के लिए /
संघर्ष जारी रखती है /
टूटती है लेकिन मिटती नहीं /
इसलिए श्रेय पाती है /
हमेशा चलते रहने का /


गुरुवार, 10 जुलाई 2014

व्यवसाय के गुर




अग्रवाल जी अक्सर अपने बड़े बेटे को साथ लेकर खड़गपुर जाया करते थे / खड़गपुर में उनकी ठेकेदारी चलती थी / जिस कारखाने में उनकी ठेकेदारी चलती थी उसकी दुरी स्टेशन से महज एक किलोमीटर होगी / लेकिन वे पैदल ना चलकर रिक्शा किराए पर ले लेते / रिक्सावाला उनसे इस दुरी के लिए दस रुपये मांगता / बिना मोल-भाव किये वे उसे दस रुपये दे देते /



एकदिन किसी कारणबस अग्रवाल जी नहीं आये / उनका बड़ा लड़का अकेले खड़गपुर स्टेशन पहुंचा / रिक्सावाला को उसी कारखाने तक चलने को कहा / रिक्शावाला तैयार हो गया / लडके ने किराया जानना चाहा / रिकसेवाले ने हमेशा की तरह दस रुपये बतलाये / लडके ने इतनी कम दुरी का हवाला देते हुए दस रुपये देने से इंकार कर दिया / मोल-भाव होते-होते आठ रुपये भाड़ा तय हुआ / उसने लौटते समय यह दुरी पैदल ही तय कर डाला / इस तरह कुल दस रुपये बचा डाले / उसने सोचा घर जाकर पिताजी को दस रुपये बचाने की बात सबसे पहले बतलायेगा / पिताजी बहुत खुश होंगे / खूब वाहवाही मिलेगी /

बुधवार, 18 जून 2014

भारतीयों से सीखें /

भारतीयों से सीखें /

शिवाजी जैसा शुर बनो /
महाराणा  प्रताप सा वीर बनो /
बनो श्रवण सा मातृ- पितृ भक्त /
कर्ण सा दानवीर बनो /
राजा बनो तुम राम जैसा /
हनुमान सा स्वामी भक्त बनो /
गांधी जैसा अहिंसावादी /
पटेल सा देशभक्त बनो /
स्त्रियों की लाज बचाकर -
कृष्ण सा तारणहार बनो /
 अर्जुन सा एकाग्र मन-
भीम सा  बलवान बनो /
काली, दुर्गा, लक्ष्मीबाई-
बन, दुष्टों का संहार करो /
सीता, सावित्री बनकर तुम -
स्त्रियों का अभिमान बनो /
विश्वकर्मा जैसा अभियंता /
सुश्रुत जैसा वैद्य बनो /
मुनि कणाद  जैसा अन्वेषक /
आर्यभट्ठ  जैसा गणितज्ञ बनो /
दधिची जैसा त्याग कर तुम-
भारत की पहचान बनो /










बुधवार, 29 जनवरी 2014

माँ का ज़ेहाद


माँ का ज़ेहाद 

शायद दिल्ली के राजपथ पर गणतंत्रता दिवस पर होने वाले परेड की तैयारी भी उतनी जोर -शोर से नहीं चल रही होगी जीतनी तैयारी रेहाना बीबी गणतंत्रता दिवस के एक दिन पहले अपने घर पर कर रही थी / उनका एकमात्र बेटा अब्दुल्ला, दो वर्षों के पश्चात सऊदी अरब से कमा कर घर लौट रहा था / चौबीस जनवरी को ही वह मुम्बई एअरपोर्ट पर उतर चुका था / आज दोपहर तक वह आजमगढ़ स्थित अपने पैतृक गाँव पहुँचाने वाला था / माँ के ख़ुशी का ठिकाना ना था / ऐसे भी अब्दुल्ला के पिता के असमय मृत्यु के पश्चात रेहाना बीबी सदैव दुखी रहा करती थी / कइयों ने तो उसे दूसरी शादी करने की सलाह दी / लेकिन पुत्र के भविष्य की चिंता कर उसने इससे इंकार कर दिया था / दूसरों के खेत में मजदूरी करती और सिलाई -कढ़ाई कर अपना और अपने बेटे का पेट पालती/ अब्दुल्ला पढने -लिखने में बहुत होनहार था / पडोशी भी उसे बहुत पसंद करते थे / पड़ोसियों के सहयोग से उसने मैट्रिक तक की पढाई की / फिर लोगो की सलाह पर तकनीकी स्कुल से आईटीआई का कोर्स किया / एक दिन माँ ने अपने कलेजे के टुकड़े को दिल पर पत्थर रख कर उसके मामा के साथ सऊदी अरब में कमाने के लिए भेज दिया / आज वहाँ जाने के बाद वह पहली बार घर लौट रहा था / माँ उसके स्वागत में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती थी / उसके कमरे को अच्छी तरह सजाया / बिछावन के चददर, खिड़की -दरवाजे की परदे सभी बदल डाले थे /उसके लिए अपने हाथों से दो जोड़ी कुरता और पतलून बनाये थे / एक जोड़ी स्वेटर, एक मफ़लर और उन का ही हैण्ड ग्लव्स बनाकर पहले से ही रख लिए थे /सुबह से ही वह उसके पसंद कि

रविवार, 26 जनवरी 2014

बलात्कार पीड़िता



बलात्कार पीड़िता


हाड़ है मांस है /
लेती अब भी साँस है /
सोती है, जागती है /
भोजन भी करती है /
फिर भी अब जीने की -
नहीं उसमे आस है /
बर्बर समाज की बनाई -
ज़िंदा एक लाश है /
ना रोती ना हंसती है /
मिलने से डरती है /
गूंगी ना बहरी फिर भी -
ना बोलती ना सुनती है /
गांव है, उसका घर है /
लोग है बाग़ है /
नीम का भी छांव है /
कमरे का अन्धेरा कोना /
टीस रहा घाव है /
बापू है, अम्मा है /
मीडिया का मजमा है /
पुलिस -प्रसाशन का-
चल रहा जांच है /
डॉक्टरी रिपोर्ट बतलाये -
आरोप बिलकुल सांच है /
फिर भी जीने से उसको -
साफ इनकार है /
जल्द आ जाये ऐसी-
मौत का इन्तजार है /

मंगलवार, 14 जनवरी 2014

वेश्या


 वेश्या




वो हर शाम दिख जाती /
उस खंडहर सा इमारत के नीचे /
जिसकी सफेदी,
दिवाल के पपड़ियों के साथ-
उजड़ गई थी वर्षों पहले /
लेकिन उसकी कोमल चमड़ियों को-
सभ्य समाज नोच-नीच कर भी -
नहीं उजाड़ पाया था अब तक /
टूटी खिड़किया, अधखुले दरवाजे/
दीवालों पर लटकी लताए /

शनिवार, 11 जनवरी 2014

दादाजी


दादाजी नब्बे वर्ष के हो गये है लेकिन आज भी उतने ही सक्रीय रहते है जितना वे अपने पचास- पचपन के उम्र में रहा करते थे / हालांकि अब उन्हें चलने -फिरने में तकलीफ होती है और बोलते समय भी जबान लड़खड़ाती है / दांत तो रहे नहीं लेकिन चश्मे कि जरुरत नहीं पड़ती / आजतक कभी घडी नहीं पहनी लेकिन कभी भी समय पूछो,  सठिक समय बतलाते है / कहते है कि मनुष्य यदि अपनी  सांसों की गति को पहचान ले तो वह बिना घडी के ही सठिक समय बतला सकता है / जब भी उन्हें समय जानने कि जरुरत पड़ती है अपनी उंगली  को नाक  के पास  ले जाते  है, सांसों की गति देखते है  और एकदम सही समय बतला देते है / गांव में द्वार पर आराम- कुर्सी  लगाकर बैठ जाते है और अपने हमउम्र साथीयों के साथ अखबार पढ़ना और आज-कल के आधुनिक समाजव्यवस्था की खामियां गिनाना ही उनके आलोचना का मुख्य विषय-वस्तु रहता है /