बुधवार, 23 अक्तूबर 2013

लिंग-भेद



लिंग-भेद

“इक्कीसवी सदी में स्त्रियाँ किसी भी मायने में पुरुषों से कम नहीं है / कारखाना हो या ऑफिस, सीमा पर लड़ना हो या अंतरिक्ष में चहलकदमी, सभी जगह महिलाएं पुरुषों के साथ कंधे से कंधे मिलाकर आगे बढ़ रही है / और एक आप है जो खुद नौकरी करते है लेकिन मुझे रोकते है / बड़े सौभाग्य से मेरी सहेली ने मेरे लिए कॉल सेंटर में एक नौकरी की वयवस्था की है/ मुझे आज जब अपनी प्रतिभा दिखाने का मौक़ा मिल रहा है तब आप मुझे अब भी किचेन में ही सिमट कर रखना चाहते है / और इसका एकमात्र कारण मेरा महिला होना है / यह लिंग – भेद नहीं तो क्या? सरकार ने लिंग-भेद रखने वाले को अपराधियों की श्रेणी में रखा है / ”
श्रीमती जी के ये फ़िल्मी अंदाज में दिए गए डायलाग से बिना विचलित हुए मैंने उनको समझाना चाहा /


” देखो- कॉल सेंटर का कार्यालय यहाँ से पच्चीस किलोमीटर दूर है/ रोजाना तुम्हे भीड़-भाड़ भरे ट्रेन में यात्रा करनी पड़ेगी / रोज-रोज का सफ़र उसपर तुम्हारा बारह घंटों का ऑफिस आवर , धुप, बरसात, ठण्ड / तुमसे सम्भव नहीं है यह नौकरी करना / ”
श्रीमती जी का चेहरा लाल हो उठा/ फाइलों से उनकी नजरें उठकर मेरे चेहरे पर टिक गई / उँगलियों को नचाते हुए बोलने लगी -” यह सब आपलोगों की पुरुषसत्तात्मक सोच है / यदि आप दस किलोमीटर रोजाना सायकिल चलाकर धुप, बरसात, ठण्ड में कारखाने में काम कर सकते है तो मै ट्रेन से यात्रा करके वातानुकूलित कार्यालय में नौकरी क्यों नहीं कर सकती / महिलाओं को कमजोर समझना पुरुषों की कमजोरी है / कोई ऐसा काम नहीं जिसे पुरुष करे और महिलाएं नहीं कर सके / यदि महिलाओं को मौक़ा मिले तो वो पुरुषों को काफी पीछे छोड़ सकती है /”
उनके इस डायलाग का कोई उत्तर देने को सोच ही रहा था की उन्होंने कुछ फाइलों को थमाते हुए आदेश सुनाया/
” अब खड़े मत रहियें , साइकिल उठाइए और बाजार जाइये / इसमें के कागजातों की फोटोकापी कराकर लाइए / कल ज्वाइनिंग के समय लगेंगे/”
” लेकिन यह काम तो आप स्वयं भी कर सकती है” मैंने दबे गले से हिम्मत जुटाकर जबाब दिया/
” वाह! रे वाह! आप पुरुष होकर घर में बैठकर टीवी पर क्रिकेट मैच देखकर अपनी छुट्टी विताये/ और मै इस चिलचिलाती धुप में साईकिल चलाकर बाजार जाऊ / शर्म आनी चाहिए आपको/”
” लेकिन नौकरी करने के लिए भी तो आपको साईकिल से स्टेशन तक जाना होगा / भीड़-भाड़ भरे ट्रेन में यात्रा करनी होगी/ ये सब कैसे सम्भव होगा/” मैंने श्रीमती जी से जानना चाहा /
जबाब मिला -
” मेरी चिंता करने की जरुरत नहीं है / मैंने सब प्लानिंग कर लिया है / सुबह आप कारखाना जाने के पहले मुझे अपनी साईकिल से स्टेशन तक छोड़ देंगे/ मैं कामकाजी महिलाओं के लिए चलाये जा रहे ” महिला स्पेशल ट्रेन” से कार्यालय चली जाउंगी / और लौटते समय “रिक्से वाले भैया” से कह देना वो मुझे घर तक पहुंचा दिया करेंगे/ हाँ छुट्टी के दिन आप आकर स्टेशन से मुझे ले आना इससे सप्ताह में एक दिन का रिक्शा भाड़ा भी बच जाएगा / इतना तो आप मेरे लियॆ कर ही सकते है / आखिर मेरे माता -पिता ने आप जैसे पुरुष के मजबूत हाथों में मेरा हाथ इसलिए ही तो थमाया था की आप अपने पुरुषत्व के बल पर मेरी जिदगी सवांर सके नहीं तो वो किसी महिला से मेरी शादी नहीं करा देते/ ”
श्रीमती जी के अंतिम चापलूसी भरे वाक्यों ने मेरे ऊपर कोई प्रभाव नहीं छोड़ा/
मैं मन ही मन सोचने लगा की इस इक्कसवी शताब्दी में भी रिक्सा वाले “भैया” ही क्यों होते है रिक्सा वाली “दीदियाँ” क्यों नहीं होती / क्या यह लिंग-भेद नहीं है / सरकार “महिला स्पेशल ट्रेन चलाकर क्या लिंग-भेद नहीं फैला रही/

1 टिप्पणी:

  1. लिंग भेद में राजेश जी आपने सच्चाई स्वीकार कर ली - मान लिया कि महिलाओं की शक्ति को कि - पुरुषों से किसी मामले में कम नही.
    (हौसले )में मेरी दृष्टि से तो बिलकुल भी नही होती हैं. आपके ब्लाग को देखा - पढ़ा बहुत अच्छा व रोचक लिखा है .

    मीनाक्षी श्रीवास्तव

    जवाब देंहटाएं